“आत्मा” ही “परमात्मा” दोस्तों, शायद दुनिया में आत्मा की इस से ज्यादा महत्वपूर्ण व सौंदर्यात्मक परिभाषा दूसरी हो सकती है, मैं नहीं कह सकता। आप ने अगर ” परिपक्वता” कसौटी जीवन की जो इस क्रम का प्रथम अंश था, पढ़ा हो, तो आप का यहां फिर स्वागत है, ध्यान रहे, आज हम वहीं से यह चिंतन आगे बढ़ा रहे है। हमने अब तक समझा था, कि शरीर की सही उपयोगिता जीवन को “परिपक्वता ” या “समर्थता” प्रदान करना है । शरीर के भीतर ऐसा क्या नायाब तत्व है, जो चेतना और चेतावनी दे रहा है, कि “शरीर तो नश्वर है, पर उसके अंदर एक सात्विक तत्व भी है, जो अमर है”। जी हाँ, इस तत्व का परिचय ” आत्मा” है। हमारा यह चिंतन अपने शरीर की अभिव्यक्ति ही है, जिसका संचालन काफी हद तक हमारी यही आत्मा करती है। आत्मा को जान कर जो ज्ञान हम अर्जित करते है उसे “आत्माज्ञान” के नाम से जानना बेहतर होगा क्योंकि इस शब्द के अंतर्गत हम आज अपने शरीर के सारे जैविक तत्वों के आपसी तालमेल से परिचित हो सकते है। उससे पहले हम अपनी ही ” आत्मा” से परिचय बढ़ाने की कौशिश करते है । जिसको दृश्यत् देखना हमारे लिए शायद संभव न हो पर उसका होना हमें पूर्णतया अहसासित है। “आत्मा” यानी एक ऐसी सात्विक और अविनाशी शक्ति जो अभौतिक होकर हमें जीवित भी रखती है, हमारे शरीर में रहकर उसे सजीव रखती तथा उससे सब काम करवाती और जिसके न रहने से शरीर अचेष्ट, निक्रिष्य, तथा मृत हो जाता है। अंग्रेजी में जिसे हम कुछ इस तरह जान सकते है, “THE SELF ( THE INDIVIDUAL) , SPRIT( THE MIND), SOUL(THE INDIVIDUAL) THE HEART (THE BODY)”। यह बात सही है, हर प्राणी आत्मिक शासित होता है, शरीर तो सिर्फ भोग्य (Consumption) का आदी होता है, उसको रोक कर आत्मा ही कहती ” रुकावट के लिये खेद है, पर अभी आपकी सजीवता के लिए ये जरुरी है”। खासबात यह भी है, शरीर कभी कभी उसके आदेशों के विरुद्ध बगावत भी करता है, और रोगों की अराजकता भोगता है। अतः यह सन्देह से परे है, कि आज हमारा आत्मिक ज्ञान से परिचित होना सही है।
जब कभी हम अपनी वर्तमान जिंदगी पर गौर करते है तो हमें शायद कभी कभी इस अनुभूति का अहसास होता होगा कि इतने सारे आधुनिक साधनों का प्रयोग करते हुए भी हम भीतर से सुखी और प्रसन्नता का अनुभव नहीं कर पा रहे है, कुछ खाली सा भीतर में महसूस हो रहा है। जी हाँ, हमारा शरीर इन साधनों के सम्पर्क में आने से आत्मिक ऊर्जा से वंचित हो, अहसास की कमी भोग रहा है। यह खालीपन हमारा भीतरी दुःख है, जो हमारे शरीर को बीमार, खोखला, कर उसे निराशा दे रहा है। सवाल यह क्या हम इन दुखों के निमंत्रणकर्ता स्वयं ही है ? उत्तर तलाश ने के लिए अपनी आत्मा से सम्पर्क साधने कि चेष्टा कीजिये, शायद सही जबाब आप को मिल जाएगा। इस तलाश की प्रक्रिया का नाम ही “आत्मविश्लेषण” है।
“आत्म विश्लेषण” वास्तव में एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो हमारी बाहरी और आंतरिक सफलताओं का मूल्यांकन कर हमारी परिपक्वता की मात्रा का वास्तिवक स्तर तय करती है। उस स्तर का आंकलन कर अपनी परिपक्वता को और ज्यादा स्वास्थ्यवर्द्धक किया जा सकता है। हमने पहले ही माना है, शरीर ही पहली अवस्था है, जिसके द्वारा ही हम जाने जाते है। जिंदगी पर आत्मबोध की हरअवस्था का उस पर प्रभाव रहेगा, हम खुश है, तो शरीर कांतिमय हो जाता है और जब हम किसी समस्या से चिंतित होते है, तो निश्चित ही हमारा चेहरा मुरझा जाता है। शारीरिक समर्थता जीवन, आत्मा और मन तीनो ही स्थितियों का समावेश है। आत्मा चूंकि शांति और अशांति दोनों ही स्थिति के निर्माण से जुड़ी होती है, अतः उसकी विवेचना सहज नहीं कही जा सकती, फिर भी प्रयासित जीवन रुक नहीं सकता, निष्क्रियता का विरोध ही आत्मिक शक्ति होती है।
आत्मा को शक्ति का रूप मानने के पीछे भगवान श्री कृष्ण का अर्जुन को दिया गीता-ज्ञान काफी प्रभावकारी कारण नजर आता है। भगवत गीता आत्मा को निराकार तत्व के रूप में स्वीकार करती है, तथा एक दृष्टिकोण की और संकेत करती है कि आत्मा का न आदि होता न अंत, यानी आत्मा का ना जन्म है, ना ही मृत्यु । जन्म- मृत्यु तो शरीर का स्वभाव है, आत्मा अजर और अमर है। दुःख की बात इतनी है, कि सब कुछ प्रमाणित नहीं किया जा सकता क्योंकि अनुसन्धानों द्वारा प्रमाणित करने वाला विज्ञान भी यहां लाचार दीखता है। हमारे शास्त्रों के अनुसार आत्मा जब पदार्थ बद्ध हो शरीर के अंदर प्रविष्ट होती है, तो उसे तीन अवस्थाओं के अंतर्गत रहना होता है, वो है, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। इन्हीं से विचार और भाव आते और जाते है। जिसके कारण सुख और दुःख का निर्माण होता है। एक मिनट के लिए अगर हम यह जीवन-आधार स्वीकार करे, तो फिर हम इस बात से कैसे इंकार कर सकते है, हमारी परिपक्वता ही काफी हद तक हमारी आत्मिक शक्ति की ऊर्जा नहीं है।
सुख, दुःख को परिभाषित करना भी आत्मा के लिए सहज काम नहीं है, क्योंकि जब शरीर अपरिपक्व स्थिति में साधनों में क्षणिक जरुरत के सुख पाने की कोशिश करता है, तो आत्मा से प्रायः दूर होने की कोशिश करता है, यही शरीर की सबसे बड़ी नकारत्मक शक्ति होती है, जिसका मुकाबला वो ही इंसान कर सकता है, जो पूर्ण परिपक्व हो। दुःख नहीं पाने काअहसास ही वस्तुत हमारा सुख है, परन्तु उसके उम्र की रेखा वहां तक ही जाती है, जहां तक हमारी तृप्ति होती है। उससे आगे जाने से वही चाह हमारा दुःख का कारण होती है। जो इस तथ्य को समझ कर जीवन सुधारता, हकीकत में वही ” परिपक्व इंसान ” की श्रेणी में कदम रखने लायक होता है। एक प्यासे के लिए पहले गिलास का पानी जितना तृप्ति देकर सुख का अनुभव देगा, शायद उतना दूसरा नही और उसके बाद शायद यह स्थिति भी हो जाए पानी के प्रति उसकी चाह तक समाप्त हो जाए, कुछ समय के लिए।
अर्थ शास्त्र में एक सिद्धांत है, ” Law Of Diminishing Marginal Utility” यानी “ह्यसमान समसीमांत उपयोगिता का सिद्धान्त” जिसके अनुसार आदमी के उपयोग की क्षमता किसी भी वस्तु के लिए कम होते होते धीरे धीरे प्रायः समाप्त हो जाती है ज्यों ज्यों वो उसका उपयोग बढ़ाते जाता है। चूँकि हम इस सिद्धान्त की अर्थ शास्त्र के हिसाब से यहां समीक्षा नहीं कर रहे है, अतः परिभाषा को ज्यादा विश्लेषण नजरिये से न समझ इतना ही समझने की कोशिश करते है, कि प्राणी किसी भी वस्तु का भोग एक सीमा तक ही सहन कर सकता है, पर उसकी तृष्णा उसे अतिरेक साधनों की खोज में लगा कर रखती है, जिससे वो आत्मिक अहसास की परिपक्वता से दूर रहे। अब तय हमें ही करना है, शरीर, आत्मा और मन इन तीनों को हम संयम, धैर्य, सन्तोष का स्वास्थ्य वर्धक चिंतन देने के लिए कितनी “परिपक्वता” के मालिक हम बन सकते है।
अगर हमने तय किया कि हमें परिपक्व व सक्षम जीवन जीना है, तो हमारी आत्मा चाहेगी हम उसे सब सकारत्मक अस्त्र प्रदान करे। ये कुछ अचूक अस्त्र है, संयम, सत्य , धैर्य, आत्मिक प्रेम, ज्ञान, विरक्ति, धर्म, आस्था, विश्वास, त्याग, सहानभूति, सम्मान, सेवा, दान, मधुरवाणी, सकारत्मक चिंतन, स्वतन्त्रता, समर्थता, शुद्ध स्वास्थ्य, प्रकृति व पर्यावरण के प्रति निर्मल विचार, मानवता और सजीव प्राणीयों के प्रति अहिंसक विचार और नकारत्मक तत्वों से दूरी।
चलते चलते हमें जेफरी फिशर के उस वाक्य से जरुर सहमत होना चाहिए जब वो कहते है “जब तक आप यह नहीं जान लेते की जिंदगी मनमोहक है और इस बात को महसूस करतें हैं, तब तक आप अपनी आत्मा को नहीं खोज सकते”।
क्रमश….लेखक *कमल भंसाली* ०२/०४/२०१७.