कोई भी झूठ से कितनी ही दौलत, शौहरत या नाम कमा ले, परन्तु जीवन पथ में उसे सत्य की जरूरत हर पल रहती है । उसका अंतर्मन सदा अपनी कमजोरी का व्याख्यान करता नजर आएगा, और उसके व्यवहार में इसकी झलक वह स्वयं भी करता है। माना जा सकता है, जीवन में बहुत सी ऐसी स्थितियों से इंसान गुजरता है, जब सत्य बोलने की कमजोरी के कारण वो असत्य का सहारा लेकर, आपसी सम्बंधों का निर्वाह कर, दुनियादारी निभाना उसकी मजबूरी हो जाती है। ये बात भी समझने की हो सकती है, कि सत्य अप्रिय होता है, और सब उसे सहीं ढंग से स्वीकार कर भी नहीं पाते। तभी जीवन ज्ञानी विशेषज्ञ कहते है, ऐसी परिस्थितियों में अल्पमात्रा झूठ भी स्वीकार्य है, क्योंकि यहां उसकी भूमिका आटे में नमक जितनी होती है, और आटे को पाच्य बनाना शरीर के लिए जरुरी होता है। संसार में अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए भी झूठ की भूमिका को आज की दैनिक जिन्दगी से बाहर करना मुश्किल होता है। तो क्या संसार आज झूठ की धुरी पर घूम रहा ! आंशिक सत्य भी यही है। परन्तु समझने की बात है, धुरी का अस्तित्व सत्य पर ही टिका है, क्योंकि सत्य हर कर्म से जुड़ा है। झूठ को स्थापित करने के लिए कर्म तो करना ही पड़ता है, चाहे वो गलत ही क्यों न हो।
झूठ कभी कभी सत्य के ऊपर भारी पड़ता है, परन्तु कुछ समय के लिए, अंदर से अपनी ही कमजोरियों से हार जाता है। जीवन सबको कितनी बार मिलता है, कहा नहीं जा सकता परन्तु शायद यह जरुर निश्चित होगा, कि वर्तमान का जीवन ही उसकी अगला स्वरुप और भूमिका तय करता होगा। वर्तमान जीवन बहुत सारी घटना क्रम से गुजरता है, और हर घटना में सत्य की भूमिका होती है, यह निर्विवाद तथ्य है, इसे नकारा नहीं जा सकता। मानव मन अस्थिर होता है, कभी कभी वो इन घटनाओं का असली मकसद समझ नहीं पाता और झूठ का सहारा लेकर इनको अपने सही लक्ष्य से दूर ले जाता है।
झूठ का मनोवैज्ञानिक अध्ययन सबसे कठिन होता है, क्योंकि इसका अध्ययन पूर्ण सत्य को अपनाने वाला ही कर सकता है, जो आज के जीवन में सबसे मुश्किल काम है। इसका सात्विक पक्ष गहरा अन्धकारित होने के कारण इसका सही मूल्यांकन आध्यात्मिक सच्चे सन्त ही कर सकते है। झूठ की सबसे बड़ी खासियत यही है, कि कोई भी इंसान अपनी अंतरात्मा से इसे बोलना पसन्द नहीं करता परन्तु गलत परिणामों से बचने के लिए बोल देता है। विश्लेषण की बात है, जिसकी जड़े अंदर तक न हो, उसका अस्तित्व कब तक ठहरेगा। अतः झूठ आखिर में पकड़ा जाता है, और मानव के व्यक्तित्व को खण्डित कर देता है। जो जीवन को समझते है, वो अपनी वाणी का संयमित प्रयोग इसलिए करते है।
झूठ बोलने के जो सम्भावित कारण हो सकते है, उनमें डर, आत्मछवि और दूसरों को नुकसान पहुंचाने की भावना, और लोभ। झूठ की संक्षिप्त् परिभाषा इतनी सी है, कि सत्य को विकृत करने की कोशिश झूठ है। पर सवाल यह भी है, आखिर सत्य क्या है ? सत्य की परिभाषा अगर आसान होती तो उसकी खोज में इंसान को भटकना नहीं पड़ता, इसलिए व्यवहारिकता के तत्वों में सत्य को स्थापित किया जाता है। इसलिए वस्तुगत चेतना की अवस्था में ही सत्य की पहचान की जा सकती है। सत्य कैसा भी हो, वो सूर्य और चन्द्रमा की तरह ज्यादा नहीं छुप सकता, भगवान बुद्ध ने यहीं संकेत व्यक्तित्व की प्रखरता के लिए दिया था।
सत्य अहिंसाकारी होता है, अगर झूठ में हिंसा नहीं सम्मलित हो, तो उसका नुकसान ज्यादा हानिकारक नहीं होता। परन्तु आज अर्थ की बहुतायत वाला युग है, इन्सान ने सत्य का कम प्रयोग करते करते निजी स्वार्थ के लिए झूठ को बेबाक अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया है, इसलिए विचारों में विश्वाश की उष्णता कमजोर हो गई। सच यही है, जिंदगी आंतरिक ख़ुशी और प्रसन्नता की मोहताज हो रही है। पैसो के बलबूते पर हम आज भी कोई व्यक्तित्व निर्माण नहीं कर सकते, हाँ, थोड़े समय का ध्यान लोग हम पर केंद्रित जरुर कर सकते है, जब तक उनका आभाष उन्हें भ्रमित करता है, कि हमारा पैसा उनके कुछ काम आ सकता है। धर्म को आडम्बर बनाने वाले साधु जब भी सच के पहलू में झूठ का सहारा लेने की कोशिश करते है, तो उनका धार्मिक नजरिया अपना अस्तित्व खो देता है। इसलिए व्यवहारिक पक्ष जीवन का मजबूत रखने के लिए ऐसे झूठ का प्रयोग करना गलत नहीं होगा, जिससे किसी भी तरह का आघात एक मानव से दूसरे मानव को नहीं पहुंचाता क्योंकि ये आज के आधुनिक युग की मजबूरी है, जहां अति साधनों के कारण चिंतन के लिए समय कम मिलता है। अल्प आयु का चिंतन बिना सार्थकता का ही होता है।
आइये, सच और झूठ की महिमा और प्रभाव हम अपने दैनिक जीवन के सन्दर्भ में तलाश करने की कोशिश करते है पर उससे पहले यहां स्पष्टीकरण जरुरी हो जाता है कि विचार और सुझाव की कसौटी सच और झूठ दोनों से नहीं कर सिर्फ चिंतन की मर्यादा के अंतर्गत करेंगे तो जीवन को प्रभावकारी बनाने में हमें मदद मिल सकती है। नमूने के नजरिये से कुछ तत्वों की तलाश हम आज के युग अनुसार करने की कोशिश करे, तो हर्ज क्या है !
1. सब जगह सत्य बोलना कोई जरुरी नही है, पर सब जगह झूठ बोलना भी जरुरी नहीं है।
2. झूठ का ज्यादातर प्रयोग कर उसे सत्य की तरह स्थापित नहीं किया जा सकता है, यह भी ध्यान रखने की जरुरत है।
3. सत्य का पूर्ण सहारा हो, तभी किसी की सार्थक और अहिंसक आलोचना उसके कर्म की करनी चाहिए, नहीं तो मौन बेहतर असमहति का अच्छा प्रभाव स्थापित कर सकता है।
4. रिश्तों की मर्यादा खून और दिल दोनों से होती है, अतः अनावयशक झूठ का इस्तेमाल खतरनाक हो सकता है।
5. कुछ रिश्ते पवित्र होते है, उनमे बेबाक सत्य ही प्रभावकारी होता है, मसलन माता-पिता, पति- पत्नी और जीवन मार्ग दर्शक – गुरु।
6. भगवान और शुद्ध दोस्ती का रिश्ता आत्मा से है, अतः पूर्ण सत्य ही यहां गुणकारी हो सकता है।
7. व्यपारिक, राजनैतिक, और सामाजिक रिश्ते में विश्वास की अधिक मात्रा की जरुरत जरुर होती है, पर स्वार्थ की प्रमुखता के कारण इसमें सच-झूठ का जरुरत के अनुसार प्रयोग करना गलत नहीं कहा जा सकता।
8. देश, प्रकृति, धर्म, दान और प्राणिय प्राण ये पूर्ण आस्था के आत्मिक मन्दिर की मूर्तियां है, अतः यहां सत्य से बेहतर झूठ कभी नहीं हो सकता, अतः इनके प्रति भावना, शुद्ध सच्ची ही कल्याण कारी होती है।
9. जीवन और मृत्यु दो क्षोर है, दोनों ही सांस की डोर से बंधे है, झूठ के अति आक्रमण से कमजोर होते रहते है, परन्तु सत्य की अल्प बुँदे ही इन्हें सही स्थिति में रखने की कोशिश करती रहती है।
10. सत्य को ईमानदारी का साथ देने से जीवन की अगली गति उत्तम हो सकती है।
11. इंसान की इज्जत सत्य कर्म से ही उज्ज्वल होती है।
जैसा की ऊपर हमने कहा, ये कुछ तत्व हो सकते है, जिनसे सच और झूठ को आज के जीवन के अनुसार हमारे जीवन को अपने चिंतन अनुसार हमारी कार्यशैली को प्रभावित कर सकते है, अतः इन्हें अंतिम सत्य की श्रेणी में नहीं रखे, तो उचित होगा। इनके अलावा भी कई तत्व की खोज हर प्राणी अपने सामर्थ्य और अनुभव से कर सकता है।
गौर से पढ़े….
* सत्यस्य वचन श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत् ।
यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम् ।।
{ यद्दपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो। मेरे ( अर्थात श्लोककर्ता नारद के ) विचार से तो जो बात सभी का कल्याण करती है, वही सत्य है। } ★ ■■■■ कमल भंसाली ■■■■ ★