चल मेरे, हमसफ़र, उन राहों पर ही तू चल
जिन, पर सफलता के फूल, खिलते हर पल
देख, चारों ओर, सुनहली,आंकाक्षाओं की भोर
मौसम है, कुछ करने का, कह रहा, आज का दौर
कल हम क्या थे, आज क्या, दे, दे जरा पहचान
जो कुछ करते, वो भला कब रहते है, अनजान
जीना उसी को कहते, जो कभी नहीं रहते बेजान
बिना मंजिल के कैसे जगेगे बता, तेरे मेरे अरमान
देख इस पल की रवानगी, कितनी सक्षमता से आता
कितना, कुछ हमें दे जाता, कितना, कुछ ले भी जाता
आ, सजाते इस पल को, कर्म से, खुलेंगे भाग्य के द्वार
कहते है, सूर्य की प्रथम, रश्मि में रहती चेतना बेशूमार
आये है जब दूनिया में, कुछ मकसद से ही जी रहे
उस मकसद की पहचान ही बढ़ाएगी, हमारी शान
बिन वजह तो पत्ती भी नहीं खिलती, हम है, इन्सान
चल कर्म करे हम, फल देने की चिंता करे, भगवान
आ आगे बढ़ते, “परिश्रम की रानी” ‘दोपहर’ कितनी चमक रही
हमें पथ का दावेदार मान, परिश्रम के पसीने की बुँदे सुखा रही
पर्वतों की नुकीली चोटियों के सिंहासन पर “दिव्या” मुस्करा रही
जीवन के हर संघर्ष में है, गहराई, कितनी सहज हो, समझा रही
विषय भोग न हो हमारी, कमजोरी की मजबूरी
अतृप्त पेड़ की शाखायें, जल्द ही सूख जाती सारी
बटोही है हम उस मंजिल के, जहां से कभी आये
आत्म रसानुभूति का रसायन, बता फिर कब पाये
आत्मा की मृष्टि को समझना, अब ऋजुता से जरुरी
यथार्थ का अनुभव ही, लक्षित उर्ध्वगामी मंजिल की दूरी
यकायक कुछ ऐसा न हो, भटक जाए निगाहें हमारी
तेरी मेरा अलग रास्ता न हो, यही है हमारी “जिम्मेदारी”
आखिर, मैं हूँ तन तुम्हारा, तू मन की चंचलता मेरी…कमल भंसाली