मानविय दृष्टि कोण की चेतना अगर अर्थ और साधनों के विकास के अनुरुप आत्मिक उन्नति की ओर अग्रसर रहती, तो पूर्ण जगत सुख सागर में गोते लगाता। मानव विलासपूर्ण जीवन जीने का आदि है, और विलासिता की अधिकता उस आत्मिक चिंतन को कम ही स्वीकार करता है, जिसमें अपना स्वार्थ नहीं होता। विज्ञान के पास सिर्फ तकनीकी सिद्धान्त है, विज्ञान मानव की भाषा समझ सकता है, परन्तु उसकी नियत नहीं। यही उसकी अक्षमता है, जिसके कारण साधनों का जो विकास वो कर रहा है उससे लोभ, वासना, अत्याचार, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, तथा हिंसा जैसे तत्वों का बोलाबाल नजर आ रहा है। इस सन्दर्भ में अनुभव किया जा सकता है, अति नुकसान दाय अग्निशय साधनों का अविष्कार, जो मानवता नाशक है, क्यों किया गया ? जापान के हिरोशीमा नगर पर परमाणु आक्रमण, अमेरिका के ट्रेड सेंटर पर हमला, बम्बई के होटल ताज पर आंतकवादी हमला, तथा अनगनित उदाहरण है, जिनसे मानवता आज भी कराह रही है। क्या यह अर्थ और साधनों की विनाशक उपलब्धि नहीं है ? बड़ी विषम परिस्थितियों से गुजर रही है, मानवता। सवाल पूछा जा सकता है, कैसे ? आइये इसको जानने की थोड़ी कौशिश करने में क्या हर्ज है ?
आज तक दुनिया के आधार स्तंभ का काम करने वाले कुछ तत्व जो धीरे, धीरे हमारे दैनिक जीवन से विदा ले रहे है, उनमे “सत्य” ही वो प्रमुख तत्व है, जिसका पूर्ण विदा होना पता नहीं क्या क्या गुल खिलायेगा,। लुप्त होता सत्य खोजने लायक रह गया है । पुराने शास्त्रो के जानकार कहते है, आज हर, परिवार, समाज और देश असत्य से प्रभावित होने के कारण भीतर से डरा, सहमा और निसहाय हो रहा है। पग, पग पर झूठ बोलने की मानव आदत, असंयमित हो कर जो धीमा जहर पान कर रहीं है, उसके परिणाम हम हर दिन अनुभव कर रहे है, पर हमारा खुद का झूठ उसे हमारे गले से बाहर नहीं निकाल सकता, अतः स्वत् ही हम अंदर घुटन, संत्रास के मरीज बन भीतर ही भीतर मानसिक और जटिल शारीरक रोगों से त्रस्त हो रहे है। खानपान से हुई बीमारी अल्पकाल में ठीक हो सकती, पर मन के रोगी का ठीक होना कितना कठिन होता है, यह अनुभव हम सबके पास है।
बच्चे झूठ बोले अभिभावक के डर से, तो बात इतनी गहरी नहीं, बच्चों को समझाया जा सकता है, परन्तु जब वो ही बच्चे अभिभावकों को मोबाइल, टेलीफोन तथा अन्य उपकरणों पर अपने को बचाने के लिए झूठ का निसंकोच व्यवहार करते देखते है, तब आनेवाले भविष्य की बुनियाद के बारे में हमारे आत्मिक चिंतन पर प्रश्नचिन्ह लगना, शर्म की बात है। झूठ पहले भी बोला जाता था, परन्तु गरिमा युक्त , और अफ़सोस के साथ, जब उसके सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं होता, या फिर परिवार और समाज को किसी कठिन परिस्थिति से बचाना जरुरी होता था। महाभारत में उसका एक उदाहरण आता है, जब द्रोणोचार्य को मारने के लिए जरूरी हुआ कि सत्यवादी युधिष्ठर से झूठ बुलाया जाय, क्योंकि किसी भी कीमत पर वो झूठ का सहारा नहीं लेते थे । इस लिए उन्हें सत्यवादी भी कहा जाता था ।विश्लेषण की यही बात है, युधिष्ठर को समझाने, भगवान श्रीकृष्ण को उनको समझाना पड़ा, बताना पड़ा, अंतिम उपाय है, यहां सत्य बहुत कमजोर पड़ रहा हैं, एक झूठ तुम्हारे मुंह से निकला सत्य समझा जाएगा। उस स्थिति के लिए सत्य से ज्यादा युधिष्ठर द्वारा बोले जानेवाले झूठ को उपयोगी और मानव कल्याणकारी बताया, नहीं तो अत्याचारी दुर्योधन को हराना पांडवों के लिए असंभव था। युधिष्ठर ने बाद में मृतशैय्या पर पड़े, द्रोणोचार्य से माफ़ी मांगी और दंड स्वरूप श्राप भी पाया। कहना न होगा, द्रोणोचार्य ने ही पांडवों तथा कौरवों को बचपन में सैनिक शिक्षा दी थी।
दैनिक जीवन में सदा सच बोलना असंभव है, परन्तु हर समय छोटी छोटी बातों में झूठ बोलना भी अहितकारी है। आज हालात यह है, कि झूठ की अधिकता के कारण मानव का मानव के प्रति विश्वास डगमगाने लगा है। किसी सत्य बात को भी स्थापित करने के लिए एडी चोटी का जोर लगाना पड़ता है। आज से कुछ सालों पहले की बात होगी, जब यह बात सुनने को मिलती “प्राण जाय पर वचन नहीं जाय”। इतिहास के कई पन्ने इस बात का सबूत दे सकते है, जब जबान की सत्यता के लिए आदमी प्राण तक दे देता था। राजस्थान के इतिहास में तो यहां तक लिखा गया की पन्ना धाय ने महाराणा प्रताप की जान बचानें के लिए अपनी खुद की सन्तान तक को खो दिया। इससे यह साबित तो होता ही है, कि सत्य जीवन का मर्म था, जीने की सार्थकता नैतिकत्ता से जुड़ी थी। अर्थ की कमी उस समय के जीवन का मापदंड नहीं था। साधनों के विकास की रफ़्तार से जीवन अर्थ की तरफ झुकता गया, आदमी का नैतिक पतन होता रहा। दबी जबान से हालांकि आज भी हम नैतिकता का समर्थन करते है, इसे हम दिखावा और ढोंग भी कह सकते है। झूठ और अर्द्धसत्य ही आज जीवन का आधार है, यह आधुनिक समाज का विकास है या पतन, फिलहाल कहा जा नहीं सकता, इसका उत्तर आनेवाला समय ही बता सकेगा।
आइये झूठ की तरफ चलते है, देखते है, शारीरिक बीमारियों में इसका कितना योगदान है ? जान लेते है। एक झूठ हमें बहुत भटकाता है,बिना वजह के झूठ को सत्य स्थापित करने के लिए कितने ही झूठ हमारे मुंह से निकलते है, पर सत्य नहीं बदला जा सकता । किसी ने एक सन्त से पूछा सत्य और झूठ का सबसे बड़ा फर्क क्या है। उन्होंने कुछ देर के चिंतन बाद मुस्करा कर कहा ‘वत्स’ मुझे लगता है, झूठ को सदा याद रखना पड़ता है, परन्तु सत्य को याद रखने की जरुरत शायद ही पड़ती है”। महात्मा जी ने अनमोल उत्तर दिया। आज हम जितने चिंतन और तनाव हमारे दिमाग में पालते है, उनको सहन करने की क्षमता हमारा शरीर कब तक स्वस्थ रहकर कर सकेगा, आखिर वो हाड़ मांस से बना है, उसके भी अपने नियम और ज़रुरते है। तभी आज छोटी उम्र में कई तरह की बीमारियां अपना प्रथम संकेत देना शुरु कर देती है। हम तब भी कहां संभलते है, डाक्टर के पास जाना ही हमारा विकल्प रह जाता है, वैसे हम जानते है, यह भी कोई कम तनाव नहीं। कह सकते है, झूठ और तनाव का चोली दामन का साथ है।
नीतिगत बात करे तो शायद सबसे ज्यादा झूठ अर्थ के पीछे भागने और भोग प्रदान वासना युक्त जीवन जीने के कारण बोले जाते है। जीवन की खूबसूरती को वहीं समझ सकते है, जो पवित्रता, शालीनता, सहजता, स्नेह, प्रेम और संयम से अपना गुलशन निर्माण कर, निश्चिन्त और शुद्धता भरा आत्मिक जीवन जीने का प्रयास करते है। याद कीजिये, आनन्द का वो संवाद जब आनन्द मरते हुए भी दिलाशा लेता है, जीवन का। ” बाबू मोशाय, जिंदगी लम्बी नहीं, बड़ी होनी चाहिए”……क्रमश……कमल भंसाली