अंधेरों से मुझे डर लगता
उजालों की रही सदा तलाश
मन का हर कौण, दहक जाता
जब बिन पत्तियों के उगता पलाश
रोशनी तो हजारों दीयों से की
पर निठ्ठला अंधेरा, कब जाता
दिल को लाख बार समझाया
दर्द, नैनों से छलकाया नहीं जाता
मेरी बेरुखी में कुछ दर्द बसते
वरना, मैं तुम्हारी तरह हंसता
जख्मों की अगर बात करता
यकीनन, बेवफा समझा जाता
उम्र भर की यह मेरी दास्तां
रखती नहीं किसी से वास्ता
सपने सभी चूर चूर हो रहे
भूल गया मंजिल का रास्ता
कल की तो है, शायद बात
हम दोनों चले थे, साथ साथ
कदम तुम्हारे या मेरे भटक गए
कसके पकड़े हाथ, छिटक गए
आओं एक दस्तूर निभा जाते
अब हम अपने सम्बन्धो की नहीं
सरहद तय करने की बात करते
जिस खून से बने, उसी के लिए लड़ते
अंत हम दोनों का है, तय
कब होगा, सिर्फ यही है, भय
भय की चौखट पर खड़े रहना
से, लाख गुना अच्छा है, शहीद होना
सच कहूं, अब अंधेरो में शुकुन मिलता
उजालों की राह, नही चलता
इंसानो की बस्ती में तन्हा रहकर
बचे प्रेम के “अवशेष” हीं ढूंढता…….कमल भंसाली