वक्त की बेपरवाही से
मन हो गया, कमजोर
संसारिकता से होकर, असहज
चला, बेरुखी के अरण्य की ओर
सहजता की गंगा में
विकृत मानसिकता की नाव
कब किनारा ढूंढती
टूटी पतवार से
मंजिल नहीं मिलती
वक्त साथ न हो
तो, हवा भी रुख बदल लेती
जिंदगी बिन पंचभूत हो
जल समाधि चुन लेती
वास्तिवकता की धरा पर
प्रेम की फसल हुई, कमजोर
स्वार्थ के तानेबाने से बंधे बन्धन
कैसे करते, जीवन स्पंदन
निस्तेज काया का क्रंदन
कोई न समझे, सिवाय मन
देख काया को, कमजोर
चला बेरुखी के, अरण्य की ओर
आत्म सरंचना की निति
देख विविधता की गति
निहार कर जीवन क्षमता, भरपूर
मन की असहजता की मनुहार
निस्पृह होकर न जाओ, अरण्य की ओर
बीत जायेगी, निस्तब्ध रात्रि
जब छा जाये करुणामयी भोर
जीवन गगन के चारों ओर
तब तुम चले जाना अरण्य की ओर…….
कमल भंसाली