अनिश्चतता ही अक्षमता है, जीवन के उद्देश्यों का निम्न मूल्यांकन ही असफलता है । जीवन बार बार नहीं मिल सकता, थोड़ी देर के लिए मान भी ले, तो तय भी नहीं की, वापस इसी मानव स्वरुप में मिलेगा तो फिर, क्यों नहीँ इसके मूल स्वरुप का चिंतन कर इसे विशिष्ठ और बेहतर बना कर हम सार्थक जीवन जियें ?आज हमारे पास भोगने के जितने साधन है, उस से ज्यादा तो हमारे पास भय के कारण होते है । उससे जीवन में निराशा और अनिश्चितता की स्थिति पनपती है।
भय का कमजोर रुप आशंका के नाम से भी जाना जाता है, मानवीय संवेदनाओं की कमजोर चेतना भी हम इसे कह सकते है, जिसका होना या नहीं होना अनिश्चित होते हुए भी हम नकारत्मक चिंतन करते है, वो हमारी आशंका ही कहलाती है । हकीकत में आशंकाओं की सूची असीमित या सीमित होना हमारे मन की मजबूती पर निर्भर करती है।
आशंकाओं से थोड़ा ज्यादा ताकतवार डर होता है, इसमे मन कुछ हद तक प्रतिरोधक भी तैयार करने की स्थिति में रहता है। कहते है, डर में थोड़ी निश्चिता का बोध रहता है, जैसे कोई धमकी देकर डर पैदा करने की कोशिश करता है। इसमें वस्तुस्थिति कुछ हद तक सामने रहती है, अतः मन सुरक्षात्मक भी हो सकता है ।
अगर हम इनकी तालिका बनाये तो शायद कभी पूरी नहीं हो सकेगी, क्यों की भय कभी खत्म नहीं होता। यह तो इन्सान को समाप्त करने का विध्वंसक हथियार है। इसे तो कृष्ण जैसा सारथि मिले तो ही संभाला जा सकता है, परन्तु उसके लिए अर्जुन बनना जरुरी है, जो असंभव है, इस भोगवादी और मिथ्यावादी समय काल में, पर, भय को जीवन में कम करना जरुरी है, नहीं तो जीवन को बेहतर तरीके से जीना मुश्किल ही होगा। आइये, जानते है, भय को कैसे कम किया जा सकता है ?
पहले हम भय की तासीर जानने की कोशिश करतें है, आखिर डर है, क्या ? मनोवैज्ञानिकों की माने तो डर कुछ नहीं है, सिर्फ एक कमजोर अनुभूति है, जो अज्ञानतावश मानव मन में कुछ होने की आशंका और ख़ौफ़ का वातावरण पैदा करती हैं। इसे हम मानसिक अव्यवस्था की श्रेणी में रख सकते है । जो नहीं हुआ या नहीं होने वाला है, फिर भी उसके होने का अहसास भी डर होता है, अगर उसके प्रभाव का नकारत्मक अह्सास है, तो भय यानि डर है। अभाव जिंदगी को सबसे ज्यादा डराता है, अर्थ का अभाव तो जानलेवा भी हो सकता है। अगर ज्ञान का अभाव हो, तो हतासा भी भय पैदा कर सकती है। ध्यान दे, तो छोटे छोटे अणु से विचार मन को प्रभावित करते रहते है, जैसे बच्चों की नादानियां माता पिता को किसी आनेवाले संकट की आहट मालूम होने लगती है।
“The oldest and strongest emotion of mankind is fear, and the strongest and oldest kind of fear is fear of unknown”…H.P Lovecraft
सच ही है कि कुछ होने में चिंता, कुछ नहीं होने का भय सदा दिल में समाया रहता है। कभी तो ऐसा भी महसूस होता है की हमारे रक्त के प्रवाह के साथ भय भी साथ चलता रहता है। चिंतन करने की बात यह है, की क्या भय जब आशंका, डर की श्रेणियां पार कर सामने आ जाता है, तो उस क्षण की मुक्ति संभव है ? विज्ञान और अध्यात्म के अनुसार तीनों ही स्थितियों पर नियंत्रण किया जा सकता है । एक कहावत है, “चिंता यानि अनजान भय मानव को चिता के मार्ग की ओर ले जाती है”। मानव शारीरिक सरंचना का कुछ इस तरह का निर्माण किया गया की उसकी मनोस्थिति के प्रभाव से कभी अछूत नहीं रहे। भारतीय दर्शन शास्त्रों में भय को चारित्रिक कमजोरी भी माना गया है । अतः यह भी कहा गया की इस पर नियंत्रण करने में ज्यादा कोई कठिनाई भी नहीं आती, बशर्ते मन में मजबूती का अंश सक्रिय हो।
अंग्रेजी का शब्द “fear” काफी हद तक तीनों स्थितियों आशंका, भय और डर के लिए उपयुक्त्त माना गया है । जब तीनों स्थितियां संयोगवश एक साथ सामने आ जाती है, तो “ख़ौफ़” बन जाती है, इसे अंग्रेजी में “horror” के नाम से सम्बोधित किया गया है।
कुछ मनोवैज्ञानिक मानते है, कि डर, आंशका, भय इत्यादी चित्त के कुछ कमजोर अंश होते है, जिनकी संवेदनशीलता काफी आक्रमक तो होती ही है साथ में आकस्मिकता का समावेश रहता है, क्योंकि मनुष्य के दिमाग की चेतना के सारे
emergency system जागरूक हो जाते है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड का मानना था, कि “अविश्वास भी डर, आशंका का कोई अंश है, जिससे आंतरिक चेतना अस्वीकार नहीं कर सकती”। जहां इंसान को किसी भी तरह के बाहरी आक्रमण का अंदेशा होता है, वहीं उसकी कार्यशैली में आंशिक भय साफ़ झलकने लगता है । भारतीय साहित्य में भी डर, भय और आशंका का मनोवैज्ञानिक चित्रण काफी प्रभावशाली स्तर पर किया गया है। वात्सायन अज्ञेय ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ” शेखर एक जीवनी” में अपने नायक शेखर के भय की हर परिस्थिति का आकर्षक चित्रण किया है ।
महान लेखक जयशंकर प्रसाद ने अपने महाकाव्य “कामायनी” में चिंता का बड़ा अद्भुत समावेश किया । उदाहरण के तौर पर निम्न पंक्तियों पर गौर कीजिये….
“बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिंता तेरे है कितने नाम
और पाप है, तू, जा, चल जा यहां नहीं कुछ तेरा काम
विस्मृति आ, अवसाद घेर ले, निरवते बस चुप करा दे
चेतनता चल जा, जड़ता से आज शून्य मेरा भर दे
चिंता करता हूं मैं जितनी उस अतीत की, उस सुख की
उतनी ही अनंत में बनती जाती रेखायें दुःख की”
अगर हम आचार्य रजनीश जो “ओशो” के नाम से भी जाने जाते है, की बात माने तो उनके अनुसार भय अजेय है। वे कहते है ” भय को न मारा जा सकता है न ही जीता जा सकता है और केवल समझ ही रुपांतरण लाती है, बाकी कुछ भी नहीं”…
संक्षिप्त में “बेहतर जीवन शैली”यही कहती है, कि समय की धुरी पर अनजाने घटनाक्रम घटने तय है, पर उनसे जीवन को प्रभावित कम करने का तरीका यही है, की जीवन में चिंतनशीलता का अभाव नहीं हो । हमें आध्यातिमकता और साहित्य से जुड़ कर भय की तासीर को कमजोर करना चाहिए, इससे हमारा मानसिक तनाव कम हो जाएगा। जानने की प्रमुख बात यह भी है की हमारी दायित्व की सीमा जितनी कम होगी, तनाव उतना ही कम होगा, जानने की बात है की जाने अनजाने उसे कहीं हम विस्तृत वृत का आकार तो नहीं दे रहें है, ना। हम सिर्फ अपने लिए ही नहीं जीते, हमारा दायित्व परिवार और समाज के लिए भी है अतः हमे अटूट आस्था और दृढ विश्वास के साथ जीवन को मजबूत और भय रहित करने की चेष्टा करते रहनी होगी। यही “बेहतर जीवन शैली”की चाह है।
शायद भगवद् गीता में ठीक ही लिखा है, कि मन की हार ही हार है, जीतना है, तो मन को मजबूत करो, सभी तरह की परिस्थिति के लिए अपनी क्षमताओं का विकास करो…
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव् ह्यात्मनों बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।
( गीता ६/५ )
“ज्ञानी अपने द्वारा अपना संसार – समुद्र से उद्धार करे, और स्वयं ही अपना बन्धु है, परन्तु जिसने आत्मनिग्रह ( स्वयं पर शासन ) नहीं सीखा है, वह स्वयं ही अपना घोर शत्रु बन जाता है।”
कमल भंसाली