“दोस्ती” की , बातें सभी करते
दावा भी, सभी करते
पर हकीकत, यही कहती
सच्ची दोस्ती, नसीब से ही मिलती
मिलकर, अगर जिंदगी भर निभ गई
समझलो, वो अमर हो गई
हर युग की, पहचान बन गई
“कृष्ण सुदामा” की बात
“कलयुग” में सच हो गई
दोस्ती की सीमित परिभाषा
खरे मोतियों, जैसी,
असीमित अभिलाषा
बिन रिश्तों, के बन्धन में
“अमृत” की बूंदों की आशा
आपसी समझ, के धरातल पर
जब “दो”, दोस्त बनते
पावनता के कुछ फूल
जिंदगी की बगिया में संवरते
स्नेह की वादियों में
इंद्रधनुषी सपने सजते
मुस्करा कर, खिलखिला कर
जीवन की दोनों
अलग अलग नैया खेते
दुनिया दो हो,
दिशायें भी हो अलग
पर, दिल एक
सांस लेता कोई
धड़कता “दूसरा”
यही है, सच्ची दोस्ती
बाकी, सिर्फ जान पहचान
स्वार्थ की गलियों में ही
आखिर, रहता, “आज का इन्सान”
प्रेम रंगो से
आत्मा की तूलिका से
बनती नाजुक सी
हर रस से भरपूर
“दोस्ताना” की कोई
अनजान सी तस्वीर
मासूमियत के शीशे में
दिल की दीवारों
पर सजती
दोस्ती इसी तरह
फलती फूलती
जिंदगी भर
हर राह पर
हर मोड़ पर
साथ नहीं छोड़ती
“जिन्दगीं ”
तो समय के पहिये पर
बीहड़ रास्तों से गुजरती
सुख दुःख के
तूफानों से टकराती
तब कोई बन जाता
रथ सारथि
दूसरा विद्धार्थी
सीमीत्तता में विस्तृता
का बोध कराती
“दोस्ती” को पूर्ण
परिभाषित कराती
ऐसी दोस्ती खोया
“मान समान” वापस दिलाती
अर्थ-अनर्थ के संसार में
स्वार्थ हिन् “दोस्ती”
अपनत्व का उपहार
धरोहर होती आत्मा की
न समझे, आज का संसार
आज की “दोस्ती”
बड़ी होती सस्ती
मकसद से बनती
पैसों के पहिये पर चलती
सन्दर्भों के अस्तित्व पर
कुछ दूर चलती
किसी विकट चौराहे पर
पर चुपचाप
हाथ छोड़
“राह” दूसरी पकड़ लेती
भ्रम, स्वार्थ और असत्य
करते “दोस्ती” को आहत
अभिमान, ईष्या और स्वार्थ
समझलों दोस्ती, “नदारद”
गुम हुई, फिर कहां मिले
जीवन के जंगल में
कृष्ण – सुदामा
फिर, कभी दुबारा
शायद ही गले मिले….
कमल भंसाली