नगण्य के अवशेष का अहसास
जब अपना ही करता अवलोकन
तब मन, हो जाता बिन प्रयास
खुद ही करता अवलोम, अवलेखन
अवाक् होकर ठहरा जीवन
आभ्यन्तर का पथ चुनता
चितवन का जो था मालिक
बन जाता कर्म निकंदन
अर्द्ध सत्य का दर्शन है, जीवन
प्रत्यक्ष को भी नहीं देखना,आसान
अप्रत्यक्ष बैठी, मृत्यु न दे दे दर्शन
निरुत्तर रह जाता, यहाँ हर प्रश्न
लोभ, लालच ने किया, पूर्ण सत्य का बहिष्कार
कल का कलंक, आज कर रहा नये अविष्कार
आत्मा पर प्रेम के संग, स्वार्थ का पूर्ण अधिकार
नव दोष की धार से लालसाए चला रही, तलवार
निनानवे उत्तर में उलझा, सौवां सवाल
फेर रही आत्मा नगण्य तत्वों की, माला
सब व्यंजनों से सजा था,जीवन का थाल
पता नहीं क्यों उठा नहीं, एक ग्रास निवाला
आत्मा ने तो हथेलियों में इसे था,संभाला
सार संसार यही रहा, खुद मन ही कमजोर रहा
आत्मा का स्वरूप बिन चित्रण, सम्पूर्ण खाली रहा
कालचक्र की गति में जीवन पहिया, अडिग पड़ा रहा
कर्म और सत्कर्म का दूर्ग आज भी अजय, अभेद्ध रहा
जीवन भ्रम में ही रहा, भ्रमित होकर दुनिया छोड़ रहा….|
कमल भंसाली