उलझा ही रहा
मन जीवन भर
न देखा उसने कभी
नई आशाओं का
आलोकित सवेरा
उसको तो सदा
अच्छा लगा लालसाओं
का अशांत अँधेरा
कहते है, लालसाओं का
होता नहीं कभी अंत
चाहे, वो हो साधारण मानव
या फिर कोई ज्ञानी संत
क्यों बनाया उसने
लालसाओं का समुद्र, गहरा
जो भी इसमे उतरा
वापिस नहीं उभरा
तल में जो कीचड़
उसी में लथपथ पड़ा
कोशिश ही नहीं करता
हो, जाऊं किसी तरह खड़ा
बड़ी अलबेली लालसा की थैली
जितनी भरो उतनी ही रहती, खाली
ऊपर से चका चक, लगती सुनहरी
भीतर सतह को बाँध कर रखती
अतृप्त लालच की,बिन गाँठ की डोरी
तत्व ज्ञानी कहते, अपक्षय अति लालसा जरूरी
दिशा हीनता कभी न हो, अगर आत्मिक मजबूरी
संयमित जीवन ही रख सकेगा,लालसाओं से दूरी
चार दिन की जिन्दगी, क्यों करे अतृप्तता की मजदूरी
लालसाओं के अनेक प्रकार, जैसे भिन्न भिन्न अचार
नाम, प्रतिष्ठा, दिखावटी दान और भी इसके आकार
कर्म की सात्विक भूमि में अगर नहीं डाले, इसकी खाद
कहते है, आत्मिक शान्ति को मिलता स्वादिष्ट फल
और
प्रभु प्रिय हो, मिले अति मनमोहक जन्म सुधारक प्रसाद…!
कमल भंसाली