अप्रत्याशित, मन का आकाश
जब, कभी हो जाता हताश
तब, निराश की छा जाती
अशांत काली घटा, घनघोर
निर्झर नयन से झरे, हहर नीर
तब, छोटी छोटी दो नन्हीं बुँदे
पथ बदल, मेरी हथेलियों के
सब्ज पते पर इठलाती,गिरती
फिर उठ कर, मुस्कराती
मानों कह रही, गिरना मजबूरी
गिर कर उठना है,बहादुरी
समझ,दो बूंदों का सार
मन हुआ,चेतन अभिसार
ह्रदय भंजक व्यवहार ही
निराशा का सत्य आधार
स्वपीड़क विचार ही होता
हताशा का पूर्ण जिम्मेदार
अभिराम मन भी भिगोता
उत्साह का नीर बरसाता
कितना फर्क जीवन में करता
पानी, तो दोनों ही तरह गिरता
एक रुलाता,दूसरा प्रसन्नता
“बहाता”
कमल भंसाली