सूनी सड़क शहर की
खामोश सी रहती आजकल
पर मन मन में करती चिन्तन
कहां गई पुरानी हलचल
कैसे सुहागिन सी रहती
अब तो खुद कों विधवा
कहने से भी डरती
सूनी सड़क…
खुली खिड़कियों से कितनी
खिलखिल की आवाजें आती
रंग बिरंगी गुड़ियों से
परियों जैसी किलकारियां सुनती
अब तो खांसने की आवाज से
खुले दरवाजे भी बंद हो जाते
कहां चला गया वह कौलाहल
दानवता के चलते शहर हो गया वीरान
मुझे भी ऐसे मानव अच्छे नही लगते
सूनी सड़क…..
बड़ी विडम्बना है जिन कलियों से फुल बनते
उन्ही से घर पावनता के मन्दिर बनते
देवी जैसी सूरत देख मन हर्षित हो जाता
आज उनका महफूज होना मुश्किल
सभ्य समाज क्यों संस्कारो से वंचित हो जाता
क्रूरता के ऐसे दीवानापन को क्यों नहीं
दिवालो में चिनकर मासूम कलियों को नही बचाया जाता
मैं सड़क शहर की मुझसे भी अब सहा नही जाता
पता नहीं आप क्यों डरते,मुझसे तो अब रहा नही जाता
सूनी सड़क………
****कमल भंसाली…..
कमल भंसाली