मत रो रे
मत सो रे
मन मेरे
तेरा बेडा
कौन करे पार
लाख समझाया
न समझ तू पाया
अब काहें मचाये
तू इतना शौर
मन रे..
माटी की काया
संभाल तू नही पाया
फंस गया रे
दुनियादारी का बंधन
कर आत्म मंथन
तब होगा तेरा निदान
मन रे..
मोह की मदिरा लगती प्यारी
रिश्तो की मधुशाला में
आत्मबोध कभी कर लेता
हश्र तेरा कभी ऐसा नही होता
अब भी निकल
मन रे..
जीवन का जंजाल
मकड़ी का जाल
अब न संभला तों
बचाआखरी सीढ़ी का खेल
कर्म का सर्प
फन फैलाये
जहर भरी जीभ लपलपाये
पता नही
किस नर्क लोक की
सैर कराये
मन रे….
कमल भंसाली